बुधवार, 11 सितंबर 2024

नदी की दुविधा



    कहते हैं सागर के निकट पहुँचने  पर

    उसमें मिलने से पहले

     एक अनाम भय से  

   काँप उठती है नदी


      याद  करने लगती है  उन पर्वत शिखरों को

       जहाँ से निकल पड़ी  थी कभी

      बाल- सुलभ उत्सुकता से

      कुछ  नया ढूंढने की  चाह  में


     उस लम्बे ,घुमावदार रास्ते

     और  उसमे मिलने  वाले

     अनगिनत जंगलों और बस्तियों को

     जिन्हें पार कर यहाँ तक पहुंची है


    और अब फैली है उसके सामने

     दिगंत तक लहराती यह  अगाध जलराशि   

     जिस में प्रवेश करने का अर्थ होगा

    सदा,सदा के लिए अदृश्य हो जाना


   तो अब क्या करे नदी? कैसे बचाए अपना अस्तित्व?

   पीछे तो लौट नहीं सकती

   और अन्य कोई मार्ग  दिखाई नहीं देता 

    दूर -दूर तक



     प्राण  रहते वापस जाना संभव नहीं

     और नहीं है कोई अन्य विकल्प  भी 

     समुद्र में प्रवेश करने का जोखिम

      उठाना ही पड़ेगा नदी को 


      शायद तब ही मुक्त हो पायेगी

     इस भय और दुविधा के भ्रम जाल   से

    और स्वयं अनुभव करेगी 

     एक नए अस्तित्व में  प्रोन्नत होने का सुख


    जान जाएगी  कि सागर में मिल जाना 

    अस्तित्व विहीन  होना नहीं होता 

    बल्कि उसके साथ एकाकार होकर

     स्वयं सागर बन जाना होता है!!

       

    




     लेबनानी / अमेरिकी कवि खलील जिब्रान की " Fear " शीर्षक कविता का भावानुवाद 

    

तीर पर कैसे रुकूँ मैं

 क्षितिज तक लहरा रहा चिर -सजग सागर    संजोये अपनी अतल गहराइयों में    सीप, मुक्ता,हीरकों  के कोष अगणित  दौड़ती आतीं निरंतर बलवती उद्दाम लहरें...