हे हिमालय!
रजत शिखरों से सुसज्जित
गगनचुम्बी शीश गर्वोन्नत उठाये
दूर तक फैली भुजाओं में समाहित
दिशि-दिशान्तर
क्या स्वयं शाश्वत प्रकृति के चिर सखा बन
अवनि पर हो तुम अवस्थित ?
या कि युग- युग से समाधिस्थ
सघन तप में लीन योगी के सदृश ही
शीत , वर्षा ताप से रह कर अविचलित
देवताओं सा प्रभामंडल सजाये
चमत्कृत करते जगत को ?
वज्र सा कठोर यद्यपि तन तुम्हारा
निःसृत होती ह्रदय से करुणा निरन्तर
और बन गंगा धरा पर उतर आती
ताप-दग्ध वसुंधरा का कष्ट हरने m
शब्द में सामर्थ्य क्या जो
कर सके अभिव्यक्त सब उदगार मन के
और वाणी भी नहीं इतनी प्रखर जो
कर सके अर्चना , अभ्यर्थना
सीमित समय में.
अतः बस नत -शीश हो यह
मौन अभिनन्दन तुम्हारा
अंजुरी भर फूल श्रद्धा भाव के ये
कर रही अर्पित तुम्हारी दिव्यता को,
हे हिमालय !
छायाचित्र---सुमित पन्त
eUttaranchal.com
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