शुक्रवार, 6 जनवरी 2023


  हे हिमालय!


रजत शिखरों से सुसज्जित 

गगनचुम्बी शीश गर्वोन्नत उठाये

दूर तक फैली भुजाओं  में समाहित

दिशि-दिशान्तर


क्या स्वयं शाश्वत प्रकृति के  चिर  सखा बन

अवनि पर हो  तुम अवस्थित ?


या कि युग- युग से  समाधिस्थ

सघन तप में लीन योगी के सदृश ही 

शीत , वर्षा ताप से रह कर अविचलित

  देवताओं सा प्रभामंडल सजाये

 चमत्कृत करते जगत को ?


वज्र सा कठोर यद्यपि तन तुम्हारा 

निःसृत होती ह्रदय से करुणा निरन्तर

और बन गंगा धरा पर उतर आती

 ताप-दग्ध वसुंधरा का कष्ट हरने m



शब्द में सामर्थ्य क्या जो 

कर सके अभिव्यक्त  सब उदगार मन के

और वाणी भी नहीं इतनी प्रखर जो 

कर सके अर्चना , अभ्यर्थना

 सीमित समय में.


अतः बस नत -शीश हो यह 

मौन अभिनन्दन तुम्हारा 

अंजुरी भर फूल श्रद्धा भाव के ये

कर रही अर्पित तुम्हारी दिव्यता को,


               हे  हिमालय  !





छायाचित्र---सुमित पन्त



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