गुरुवार, 28 सितंबर 2023

मेरे शब्द


                                मेरे शब्द

                        मुझ से  अलग नहीं

                       वे हैं मेरे अस्तित्व का एक अभिन्न अंग

                       मेरी अन्य ज्ञानेंन्द्रियों की भांति ही


                         उन्हीं के द्वारा तो  मैं व्यक्त कर पाती हूँ

                          अपने विचारों और अनुभूतियों को

                    बँटा सकती हूँ सुख - दुख और चिंतायें

                     अपने लोगों के साथ

      

                     किन्तु, कभी -कभी ऐसा भी होता है

                     कि  बिना कोई कारण  बताये 

                     वे रूठ कर दूर चले जाते हैं

                     मुझे  कुछ भी कहने में असमर्थ  छोड़ कर


                      ऐसे में, बस चुपचाप  प्रतीक्षा करती हूँ

                      उनके वापस आने की

                      जानती हूँ, देर - सबेर अवश्य लौटआयेंगे वे

                      क्षमाशील, आत्मीय, सुजनों की तरह


                      ताकि फिर से जुड़ सकूँ मैं

                      अपने  प्रिय  रचना- संसार  से

                       उन सभी चीजों और लोगों से

                      जिनका साथ सदैव रुचिकर है मुझे....

सोमवार, 11 सितंबर 2023

बरखा रानी



 विनती तनिक हमारी सुन लो

   बरखा रानी

 बहुत हुआ अब  वापस जाओ 

  बरखा रानी!


माना  तुम्हें पुकारा था हमने ही

 सूर्य देव का कोप पड़ रहा था जब भारी

 असहनीय गर्मी से झुलस रहे थे प्राणी'

  त्राहि माम ' करते जाते थे आर्त स्वरों में  


   बड़ी कृपा की , तुमने आकर हमें उबारा

    धन्य हुए वन -उपवन, पशु -पक्षी, घर -आँगन 

      नहीं अमृत से कम थीं वे शीतल बौछारें

     बन संजीवनी उतरी जो मृत-प्राय धरा पर


      बहुत बड़ा उपकार, सदा हम ऋणी तुम्हारे

       युग - युग से  अस्तित्व हमारा तुम पर निर्भर.

     क्षमा -याचना सहित शिकायत  किन्तु हमारी

   अधिक कृपा लगती सबको अब  विनाशकारी 


      हो अनुशासनहीन  नदी नालों ने जमकर

      तोड़ -फोड़ की है सीमा से बाहर जाकर

       डूबे गाँव, गली, मंदिर चौबारे

       उजड़े खेत, बाग, रास्ते, गलियारे


           कहीं  खिसकते हैं पहाड़ तो कहीं फट रहे बादल

           लगता है अभिशाप बन गया जो था जीवन सम्बल

           कौन सँभाले किसको सब ही तो विपदा के मारे

            हों चाहे नर ,नारी,बच्चे, अथवा पशु बेचारे


            हाथ जोड़ यह विनय, कि अब विश्राम करो घर जाकर

            नहीं यहाँ   है और जरूरत हे कल्याणी!

            आना पुनः, पुकारें जब भी कातर होकर

             पर अब शीघ्र विदा हो जाओ हे महारानी!







     



तीर पर कैसे रुकूँ मैं

 क्षितिज तक लहरा रहा चिर -सजग सागर    संजोये अपनी अतल गहराइयों में    सीप, मुक्ता,हीरकों  के कोष अगणित  दौड़ती आतीं निरंतर बलवती उद्दाम लहरें...