मेरे शब्द
मुझ से अलग नहीं
वे हैं मेरे अस्तित्व का एक अभिन्न अंग
मेरी अन्य ज्ञानेंन्द्रियों की भांति ही
उन्हीं के द्वारा तो मैं व्यक्त कर पाती हूँ
अपने विचारों और अनुभूतियों को
बँटा सकती हूँ सुख - दुख और चिंतायें
अपने लोगों के साथ
किन्तु, कभी -कभी ऐसा भी होता है
कि बिना कोई कारण बताये
वे रूठ कर दूर चले जाते हैं
मुझे कुछ भी कहने में असमर्थ छोड़ कर
ऐसे में, बस चुपचाप प्रतीक्षा करती हूँ
उनके वापस आने की
जानती हूँ, देर - सबेर अवश्य लौटआयेंगे वे
क्षमाशील, आत्मीय, सुजनों की तरह
ताकि फिर से जुड़ सकूँ मैं
अपने प्रिय रचना- संसार से
उन सभी चीजों और लोगों से
जिनका साथ सदैव रुचिकर है मुझे....
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