गुरुवार, 16 जनवरी 2025

तीर पर कैसे रुकूँ मैं

 क्षितिज तक लहरा रहा चिर -सजग सागर 

  संजोये अपनी अतल गहराइयों में 

  सीप, मुक्ता,हीरकों  के कोष अगणित 


दौड़ती आतीं निरंतर बलवती उद्दाम लहरें 

 लौट जातीं कुछ न कह कर, किन्तु लगता 

 कर रहीं उपहास मेरी भीरुता का


 " पा सकोगे कुछ वहाँ पर बैठ कर तुम 

 यदि नहीं आगे बढ़े तज कर किनारे?

 बिना पैठे ही गहन जलराशि में क्या 

  हाथ आयेंगे कभी मोती तुम्हारे?"

  


   यह चुनौती है कि अवसर,

  मिटेगा अस्तित्व या मोती मिलेंगे,

  जान पाना है कठिन,

   जब तक न जा उनसे मिलूँ मैं,

   

     तीर पर कैसे रुकूँ मैं ?










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तीर पर कैसे रुकूँ मैं

 क्षितिज तक लहरा रहा चिर -सजग सागर    संजोये अपनी अतल गहराइयों में    सीप, मुक्ता,हीरकों  के कोष अगणित  दौड़ती आतीं निरंतर बलवती उद्दाम लहरें...