बादलों के डेरों को धता बताती,
कुहासे की घनी चादर को चीर,
उतरती धरा पर एक स्वर्णपरी,
स्वर्ग से आये वरदान की तरह.
सूरज की बेटी अपने कोमल करों से,
धरती के मुख पर जमे तुषार कणों को पोंछ,
लौटा लाती उसकी मनमोहक स्मित को,
अगणित इन्द्रधनुषों से आवृत कर.
फिर आ पहुँचती एक शुभ मुहूर्त में ,
माघ महीने की बहु -प्रतीक्षित संक्रांति,
वसंत- आगमन की घोषणा के साथ साथ,
शीत की विदाई का आश्वासन देती.
पिघलने लगती हैं धीरे, धीरे
शिखरों पर जमी बर्फ़ की परतें,
छँटने लगता है कुहासे का भ्रमजाल,
नवीन ऊष्मा से अनुप्राणित हो चल पड़ता
पुनः जीव -जगत का कार्य -व्यापार.
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