उस एक शाम
दोपहर बाद की झपकी
अचानक ही टूटी थी
पड़ोस की छत से आती
घंटियों की आवाज़ से
और देखते देखते
गूँज उठा था सारा वातावरण
तालियों, घंटियों और शंख ध्वनियों के
मधुर स्वरों से
सम्मोहित सी मैं भी
घर की छत पर जा पहुंची
और अनायास ही शामिल हो गयी
उस अद्भुत, अपूर्व, संगीतोत्सव में
जहाँ चतुर्दिश गूँजती
विविध स्वरलहरियाँ मानो
बिना शब्दों के भी बहुत कुछ कहने
फूट पड़ी थी एकाकर होकर
जन -जन की सेवा में जुटे
उन असंख्य कर्मवीरों के प्रति
स्नेह, सम्मान, और कृतज्ञता का यह ज्ञापन
निश्चित ही भावभीना था
और चिर- स्मरणीय भी!
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