गुरुवार, 16 जनवरी 2025

तीर पर कैसे रुकूँ मैं

 क्षितिज तक लहरा रहा चिर -सजग सागर 

  संजोये अपनी अतल गहराइयों में 

  सीप, मुक्ता,हीरकों  के कोष अगणित 


दौड़ती आतीं निरंतर बलवती उद्दाम लहरें 

 लौट जातीं कुछ न कह कर, किन्तु लगता 

 कर रहीं उपहास मेरी भीरुता का


 " पा सकोगे कुछ वहाँ पर बैठ कर तुम 

 यदि नहीं आगे बढ़े तज कर किनारे?

 बिना पैठे ही गहन जलराशि में क्या 

  हाथ आयेंगे कभी मोती तुम्हारे?"

  


   यह चुनौती है कि अवसर,

  मिटेगा अस्तित्व या मोती मिलेंगे,

  जान पाना है कठिन,

   जब तक न जा उनसे मिलूँ मैं,

   

     तीर पर कैसे रुकूँ मैं ?










बुधवार, 11 सितंबर 2024

नदी की दुविधा



    कहते हैं सागर के निकट पहुँचने  पर

    उसमें मिलने से पहले

     एक अनाम भय से  

   काँप उठती है नदी


      याद  करने लगती है  उन पर्वत शिखरों को

       जहाँ से निकल पड़ी  थी कभी

      बाल- सुलभ उत्सुकता से

      कुछ  नया ढूंढने की  चाह  में


     उस लम्बे ,घुमावदार रास्ते

     और  उसमे मिलने  वाले

     अनगिनत जंगलों और बस्तियों को

     जिन्हें पार कर यहाँ तक पहुंची है


    और अब फैली है उसके सामने

     दिगंत तक लहराती यह  अगाध जलराशि   

     जिस में प्रवेश करने का अर्थ होगा

    सदा,सदा के लिए अदृश्य हो जाना


   तो अब क्या करे नदी? कैसे बचाए अपना अस्तित्व?

   पीछे तो लौट नहीं सकती

   और अन्य कोई मार्ग  दिखाई नहीं देता 

    दूर -दूर तक



     प्राण  रहते वापस जाना संभव नहीं

     और नहीं है कोई अन्य विकल्प  भी 

     समुद्र में प्रवेश करने का जोखिम

      उठाना ही पड़ेगा नदी को 


      शायद तब ही मुक्त हो पायेगी

     इस भय और दुविधा के भ्रम जाल   से

    और स्वयं अनुभव करेगी 

     एक नए अस्तित्व में  प्रोन्नत होने का सुख


    जान जाएगी  कि सागर में मिल जाना 

    अस्तित्व विहीन  होना नहीं होता 

    बल्कि उसके साथ एकाकार होकर

     स्वयं सागर बन जाना होता है!!

       

    




     लेबनानी / अमेरिकी कवि खलील जिब्रान की " Fear " शीर्षक कविता का भावानुवाद 

    

शुक्रवार, 17 मई 2024

याचना


     हे मेरे प्रभु! 

विनती है मेरी तुमसे 

कि मिटा डालो समूल 

मेरे ह्रदय की दरिद्रता को 

उस पर निरंतर प्रहार करके


शक्ति दो मुझे देव 

सुख दुख दोनों को ही 

समान भाव से सहज रहकर 

सहन करने की.


शक्ति दो कि निर्बलों, निर्धनों 

से कभी विमुख न होऊँ 

और न कभी घुटने टेकूँ 

धृष्ट और दम्भी शक्तियों के समक्ष.


 यह भी कि मन मस्तिष्क को  

उठा सकूँ ऊपर 

नित्य प्रति की क्षुद्र बातों से 

और रह सकूँ उनसे अप्रभावित 

 


 शक्ति दो कि अपने प्रेम को 

सेवा में परिणत  कर फलीभूत कर सकूँ 

और कर सकूँ स्वयं को समर्पित तुम्हें 

सम्पूर्ण प्रेम के साथ.



गुरुदेब रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता का हिंदी रूपांतर 

(गीतांजलि 38)

रविवार, 14 अप्रैल 2024

अँधेरे से उजाले की ओर


 घोर निराशा के पलों  में 

 हम देख नहीं पाते अक्सर 

काले, घने,  बादलों के पीछे छुपी 

सुनहरी किरणों का सच.


   पर,अंधेरा कितना भी घना हो

   टिक नहीं सकता लम्बे समय तक 

   सूरज की अदम्य ऊष्मा और 

    प्रभामण्डल के समक्ष.


     अँधेरे - उजाले का  यह खेल 

    चला आ रहा आदिकाल से, और 

    चाहे अनचाहे  सभी  को बनना पड़ता है 

    इसमें प्रति भागी.

    

      यद्यपि  सुख का एक द्वार बंद होने पर 

      प्रायः खुल जाता है कोई दूसरा द्वार भी 

      किन्तु दुख में डूबी हमारी ऑंखें 

      देखती रहतीं हैं देर तलक बंद किवाड़ों को ही.


     और देख नहीं पातीं उस नये द्वार को 

      जो खुल गया है हमारे सामने 

      सुखद संभावनाओं से भरे भविष्य की 

      झलकियाँ  दर्शाता.

      

     



  



शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

श्रद्धा - सुमन (4)



      1 .    प्रार्थना

       2.  दृष्ट से अदृष्ट की ओर

      3 .   ईश्वर ने नहीं किया यह वादा...

       4 .    राम  , तुम्हें प्रणाम

       5.    अवध की दीपावली

        6.    संत वैज्ञानिक

        7.   चिर - स्मरणीया माँ

        8.     आभार 

विविधा (3)


               1.    माता भूमि : पुत्रो अहं पृथिव्या :

                2.  आज की चिंता 

                3.   आतंकवाद

                4.   दुनिया को नहीं चाहिए...

                5.    हिरोशिमा की चेतावनी

                 6.   युद्ध के बाद


            

                

जीवन संगीत (2 )



        1.      स्वागत, नव - वर्ष

        2.     आशा की ध्वनियाँ

        3.      प्यारी बेटियाँ 

        4 .      मेरे शब्द

        5 .  कविता - अकविता

        6.   सबसे सुन्दर कविता 

        7 .   छोटी सी बात

         8.  बेटी के अधिकार 

        9 .    अंदर की चिंगारी

        10.    गौरय्या की जिद्द

        11.    गिरगिट उवाच

       12.     पतझड़ के बाद

       13.     गुलाब की आत्म - कथा

      14.   कोविड काल की एक दोपहर

       15.    गाँव वाला घर

       16.  विदा होता हुआ साल 

       

तीर पर कैसे रुकूँ मैं

 क्षितिज तक लहरा रहा चिर -सजग सागर    संजोये अपनी अतल गहराइयों में    सीप, मुक्ता,हीरकों  के कोष अगणित  दौड़ती आतीं निरंतर बलवती उद्दाम लहरें...