बुधवार, 22 मार्च 2023

गिरगिट उवाच


 देखा जनवरी की एक सुबह मैंने 

अशोक की डाल पर चिपके

 उस विचित्र प्राणी को

निश्चिंत सा जो था  धूप में लेटा 

  

   मुझे निकट आता देख

    भागने को उद्यत हुआ

     पर मैं भी  तुरन्त बोल पड़ी

      रुको, आज कुछ  पूछना  है तुमसे


    बड़ा ही अजीब  स्वभाव  है तुम्हारा

     बार  -बार रंग बदलते रहते हो

     कभी लाल -काला तो कभी हरा -पीला

      इतना भी  फैशन  का गुलाम होना  क्या


      कि अपनी कोई निश्चित पहचान  ही न रहे

      फिर कैसे कोई विश्वास करे  तुम पर, 

     प्रकृति ने दिया है  हर एक को अलग रंग 

     तुम क्यों अलग दिखना चाहते  सभी  से?


      सिर ऊँचा उठा कर  उत्तर दिया उसने

      ठीक  कहती हो कि रंग बदलता  हूँ अक्सर 

     पर  जानती हो ऐसा  करता ही क्यों हूँ मैं

         शौक है यह मेरा कि कोई मज़बूरी?


        सच तो यह है  कि रंग बदलने में

       फैशन - वैशन  का तो दूर तक  विचार नहीं

       बस प्राण बचाने  की कोशिश  भर  करता हूँ

       तुम्ही कहो जान किसे नहीं होती प्यारी?


       छोटा सा जीव , जब भी  बाहर  निकलता 

        हमेशा  डरा, सशंकित    रहता  हूँ

       कि न  जाने कब  आहार  बन  जाऊँ

       घात लगाए बैठे किसी दुश्मन का 

         

      इसलिए तो यह युक्ति  है अपनाई

     कि जहाँ जैसा रंग हो, वैसा ही बनकर

     छुप रहता ऐसे कि किसी शिकारी को

      दिखाई  नहीं देता दूर या पास से


    बुरा न मानो तो मैं भी  कुछ पूछ  लूँ

    रंग बदलने के लिये  मुझ पर हो हँसते

    पर क्या तुम  स्वयं कभी  ऐसा नहीं करते

    तुम्हेँ भी रहता है क्या जान का खतरा?


   बात उसकी  तीर  सी चुभ गई  मुझ को

   उत्तर क्या दूँ  कुछ  समझ नहीं आया

   जानती न थी  कि प्रतिप्रश्न कर बैठेगा

   कुछ कहने  के बजाय चुप रहना ही ठीक लगा


       कहती भी कैसे  कि रंग बदलना

        प्राण  बचाने का उपक्रम नहीं हमारे लिये

        यह तो है अवसर वादिता की एक चाल

        करते उपयोग जिसका जब भी  वांछित लगे


          कि हम तो रंग बदलते हैं अपने स्वार्थो की खातिर

           उचित -अनुचित  का विचार  किये बिना

           नैतिक मूल्यों को तिलांजलि  देकर भी

           पूर्ण करना चाहते अपनी अनुचित  इच्छायें 


         सोचते -सोचते  ग्लानि छाई  मेरे मुख पर

         देखकर हाल  मेरा वह  समझ  गया सबकुछ

        बोला व्यंग्यपूर्वक जाते - जाते पलट कर

         अब तो न हँसोगी  फिर कभी मुझ पर?


        वह  तो जा छुपा  पत्तों के बीच फिर से

         पर छोड़  गया मुझको यह पाठ  पढ़ाकर

         कि दूसरों  पर  उँगली उठाने ने से पहले

         झाँक लेना बेहतर है अपने  ही गिरेबान में.

       

         

           

  

       


     

     

  

  

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तीर पर कैसे रुकूँ मैं

 क्षितिज तक लहरा रहा चिर -सजग सागर    संजोये अपनी अतल गहराइयों में    सीप, मुक्ता,हीरकों  के कोष अगणित  दौड़ती आतीं निरंतर बलवती उद्दाम लहरें...