उस दिन
मन में उमड़ते भावों को
शब्दों में ढाल कर, बड़े चाव से
रची मैंने एक कविता.
फिर बारम्बार उसे पढ़ते हुए
आनंदानुभूति से भावविभोर हो
आत्म - विमुग्ध सी बैठी रही
कुछ देर तक.
किन्तु फिर महसूस हुआ
कि यह तो है बड़ी साधारण सी रचना
इसमें कुछ भी अनुपम,आकर्षक
या असाधारण नहीं.
अतः मस्तिष्क से आग्रह किया
उसे कुछ बेहतर बनाने के लिये
उसने अनेक अलंकारिक शब्दों से सजा कर
पुरानी रचना का काया -कल्प ही कर डाला.
प्रसन्न थी मैं कि इन नवीन आभरणों से
उत्कृष्ट बन जाएगी मेरी साधारण सी कविता
और पायेगी भरपूर स्नेह एवं प्रशंसा
अपने सौंदर्य और सरसता के लिये
किन्तु, जब पढ़ने लगी, तो उलझ कर रह गयी
दुरूह शब्दावली की भूलभुलैया में
फिर न रसों का आस्वादन कर पायी
न अलंकारों की सराहना.
हताश हो कर ढूँढने लगी जब
मूल रचना को, उसकी आत्मा को
तो पाया कि निस्पंद सी पड़ी थी वह
जैसे किसी अनचाहे बोझ तले.
तब मैंने समझ लिया कि उसे
अपने मूल स्वरुप में लौटाना होगा
जान गयी थी कि सीधे ह्रदय से निकले शब्द ही
होते हैं सबसे सुन्दर कविता.