रविवार, 22 जनवरी 2023

जाग रही है रात...


 सूरज के जाने के बाद,

जागती  रहती है वह उसके लौटने तक,

घने अँधेरे  में लिपटी, अदृश्य रह कर भी,

बनाये रखती अपनी स्वतंत्र अस्मिता.


गाँव- गली, कस्बे, नगर , महानगर,

खेत -खलिहान, कारखाने, अस्पताल,

हिमशिखर, नदियाँ,घाटियाँ , महासागर,

केसर की क्यारियों से  निर्जन मरुस्थलों तक.


  जागती रहती सदैव,

 उन कर्मवीरों का साथ देती,

 डटे रहते जो निरंतर कर्तव्य -पथ पर,

ताकि जन- जीवन चलता रहे अनवरत,


रह सकें गतिमान बसें, रेलें, और  वायुयान,

अस्पतालों में उपलब्ध हों 'इमरजेंसी' सेवाएं ,

 जागते मिलें नर्स, डॉक्टर ड्यूटी पर, 

दुर्घटना पीड़ितों को मिल पाए तत्काल राहत.


जागती रहती  ऊँचे  मचानों पर,

किसी "हलकू" और  "झबरा" की नींद को भगाती,

 हरी -भरी फसल  को चट  न  कर जाएँ जिस से,

ताक में बैठे, भूखे, जंगली  जानवर *1


  और  कहीं  हमदर्द  उन बेघरों  की बनकर,

 जाग रहे ठिठुरते जो संकरे  फुटपाथों  पर,

  अलाव की अस्थाई गर्मी के सहारे,

 सुबह की गुनगुनी धूप  की बाट  जोहते.



 'नाईट वाचमैन'  के साथ साथ चलती, 

 टॉर्च और  डंडा  लेकर सीटी बजाता,

   घूमता  रहता  जो अकेला सड़कों पर,

    "जागते रहो " की ऊँची टेर लगाता.


सीमाओं पर प्रहरियों  के साथ  खड़ी रहती,

 बर्फ़ीली चोटियों में  दीवार  बनकर,

सुनिश्चित  करते  जो सारे देश की सुरक्षा,

कभी कभी  तो देकर  प्राणों का बलिदान भी **2


 सोती नहीं  पल भर  कभी  कहीं वह 

प्रतिकूल मौसम, परिस्थितियों  में  भी.

 जागरूक रहती  सदा सूरज के आने तक,

निष्ठावान प्रतिनिधि  की भूमिका निभाती.


जागती रहती साँवली, सयानी  रात

जीवन - चक्र  को गतिमान  रखती 

सूरज  के जाने के बाद भी

उसके लौट आने तलक.


  

संदर्भ :-

*1-- कहानी सम्राट मुंशी  प्रेमचंद जी की मर्मस्पर्शी कृति  " पूस  की रात " 

 *02:-  लांस नायक  हनुमंथप्पा और  साथियों का बलिदान 

  

  

 

 सूरज डूबने के बाद उसके फिर आने तक
 जागती रहती है रात
घने अँधेरे  आवरण में लिपटी
अदृश्य होकर भी अपना अस्तित्व जताती 
  

   गाँव, कस्बे,शहर, महानगर
 खेत,खलिहान,कारखाने, अस्पताल 
 हिम शिखर, नदियाँ,झील,महासागर,
केसर की क्यारियों और जलते रेगिस्तानो तक 

जाग रहती है सदा 
रात- पारी के कामगारों के संग 
जो साथियों की ड्यूटी पूर्ण हो जाने पर
ले लेते सारा दायित्व अपने कंधों पर
ताकि जन- जीवन चलता रहे अनवरत .

गतिमान रह सकें बस, रेल, और वायुयान,
अस्पतालों में भर्ती रोगी पाएँ  समुचित देखभाल 
 परीक्षा की तैयारी में लगे युवाओं को
मिल जाय कुछ और समय भोर होने तक.


जागती रहती है वह
खेतोँ में मचान पर, किसी "हलकू और झबरा "** के संग
पकी फसल को चट  ना कर पाएँ जिस से 
 ताक में बैठे जंगली जानवर

और उन बेघरों की हमदर्द  बनकर भी 
जाग रहे ठिठुरते,जो नगरों के फुटपाथों  पर
अलाव की आग के अस्थायी सहारे में 
सुबह की पहली किरणों की बाट जोहते l  

 चलती रहती है वह 
'नाइट वॉचमैन' का साथ देती 
रात के अँधेरे में  टॉर्च-  डंडा लेकर
"जागते रहो"  की टेर लगाता
घूम  रहा जो अकेला, सुनसान सड़कों  पर 

सीमा पर प्रहरियों के संग विचरती
हिमानी चोटियों को भी  घर जैसा मान देते 
सुनिश्चित करते जो स्वदेश  की सुरक्षा
 (कभी कभी तो दे कर प्राणों का दान भी).** 2

 सोती नहीं कभी भी साँवली,सयानी रात
 किसी भी मौसम,परिस्थिति, परिवेश में 
 सूरज के लौटने तक निभाती  दायित्व सारे
 हो सकें साकार ताकि सपने हम सभीके .

 

 
  सन्दर्भ :
  * 1    कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की मर्मस्पर्शी कृति  'पूस  की रात ' के पात्र 
  **2    लांस नायक हनुमंथप्पा और साथिओं का बलिदान 
 
  





 

शनिवार, 14 जनवरी 2023

मकर -संक्रांति पर....

 बादलों के डेरों को धता  बताती,

 कुहासे की घनी चादर को चीर,

 उतरती धरा  पर एक  स्वर्णपरी,

  स्वर्ग से  आये वरदान की तरह.

  

   सूरज  की  बेटी अपने कोमल  करों से, 

   धरती के मुख पर जमे तुषार कणों को पोंछ,

   लौटा लाती  उसकी  मनमोहक स्मित को,

    अगणित इन्द्रधनुषों से आवृत  कर.


    फिर आ  पहुँचती  एक शुभ मुहूर्त में ,

    माघ महीने की बहु -प्रतीक्षित संक्रांति,

    वसंत- आगमन की घोषणा के साथ साथ,

    शीत की विदाई का आश्वासन देती.

    


   

    पिघलने  लगती हैं  धीरे, धीरे 

     शिखरों  पर  जमी बर्फ़ की परतें,

    छँटने लगता है कुहासे का भ्रमजाल,

   नवीन ऊष्मा से अनुप्राणित हो चल पड़ता 

    पुनः जीव -जगत का कार्य -व्यापार.

         


   



      

     

 

    


बुधवार, 11 जनवरी 2023

नदी

 

नदी

i


                                 नदी को बहने दो
                                बहती रहने दो उसे
                               मत   बाँधो उसकी  उन्मुक्त धार  को 
                              अपनी स्वार्थ-सिद्धि के निमित्त.

                                 बहने दो उसे अविराम
                                 क्योंकि अनंत अवरोधों के बीच  भी 
                                  निरंतर प्रवहमान रहना उसकी प्रकृति है 
                                 और नियति भी.

                                बहने दो उसे निर्बाध और निश्चिन्त
                                 क्योंकि अविरल प्रवाह ही  बनाता है उसे
                                स्वच्छ ,  सुन्दर और कल्याणकारी
                                जीव-जगत के लिये.
.
                               मत  अवरूद्ध करो उसका स्वनिर्मित पथ,
                               क्योंकि ठहरना नहीं है उसका स्वभाव,
                               यदि रोक ली गयी  बलात कभी कहीं,
                               तो खो देगी अपना नैसर्गिक स्वरुप.

                             मत भूलो  कि चिरंतन प्रवाह ही है,
                            उसके अनन्य सौंदर्य और शुचिता का  पोषक ,
                             उसकी अदम्य  जिजीविषा का  प्रमाण,
                             उसकी अनुकरणीय गति का प्रतीक.
                              
                             
                             जाने दो उसे सोल्लास अपने गंतव्य की ओर,
                            क्योंकि वही है उसके जीवन का लक्ष्य,
                            कंक्रीट के बांधों  में बांध  उसे झील  मत बनाओ,
                             नदी है वह  , उसे नदी ही रहने दो.

                           क्योंकि अवांच्छित  बंधनों  में जकड़े जाना
                            स्वीकार्य नहीं होता किसी को भी
                            चाहे वह नदी हो, या किसी अंतःस्थल से निःसृत
                            नितांत सरल, मन को छूता कोई  प्रेम गीत.
                           


          Photo courtesy
          eUttaranchal.com.













शुक्रवार, 6 जनवरी 2023


  हे हिमालय!


रजत शिखरों से सुसज्जित 

गगनचुम्बी शीश गर्वोन्नत उठाये

दूर तक फैली भुजाओं  में समाहित

दिशि-दिशान्तर


क्या स्वयं शाश्वत प्रकृति के  चिर  सखा बन

अवनि पर हो  तुम अवस्थित ?


या कि युग- युग से  समाधिस्थ

सघन तप में लीन योगी के सदृश ही 

शीत , वर्षा ताप से रह कर अविचलित

  देवताओं सा प्रभामंडल सजाये

 चमत्कृत करते जगत को ?


वज्र सा कठोर यद्यपि तन तुम्हारा 

निःसृत होती ह्रदय से करुणा निरन्तर

और बन गंगा धरा पर उतर आती

 ताप-दग्ध वसुंधरा का कष्ट हरने m



शब्द में सामर्थ्य क्या जो 

कर सके अभिव्यक्त  सब उदगार मन के

और वाणी भी नहीं इतनी प्रखर जो 

कर सके अर्चना , अभ्यर्थना

 सीमित समय में.


अतः बस नत -शीश हो यह 

मौन अभिनन्दन तुम्हारा 

अंजुरी भर फूल श्रद्धा भाव के ये

कर रही अर्पित तुम्हारी दिव्यता को,


               हे  हिमालय  !





छायाचित्र---सुमित पन्त



eUttaranchal.com






Induja MONDAY, 7 MAY 2018 एक चिट्ठी -- माँ के नाम पूजनीया माँ शतशः प्रणाम आज वर्षो बाद तुम्हारे लिए पत्र लिखने बैठी हूँ . दो वर्ष से भी अधिक समय बीत गया और तुमसे मिलना नहीं हुआ , और न ही किसी तरह से कोई संपर्क हो सका . तुम तक अपनी बात पहुँचाने के मेरे सारे प्रयास विफल रहे है . तुम कैसी हो , कहाँ हो , यह जानने का कोई उपाय नहीं . इस भौतिक जगत की समस्त सीमाओं से दूर न जाने किस दुनिया में जाकर बस गयी हो , किसी ऐसी जगह जहाँ से कोई कभी लौट कर नहीं आता . जहाँ से न कोई पत्र आता है , न कोई सन्देश. वह स्नेह- सूत्र जो हमें एक दूसरे से जोड़े हुए था , टूट कर कहाँ खो गया , नहीं जानती,. वह शीतल छाँव जहाँ बैठकर मै जीवन संघर्ष की सारी थकान भूल जाती थी, अब केवल याद बन कर रह गयी है . अँधेरे में मुझे मार्ग दिखानेवाली उस ज्योति शलाका को समय चक्र ने मुझसे छीन लिया है और मै दिग्भ्रमित सी होकर उसे फिर से पाने का निष्फल प्रयास करती रहती हूँ . परन्तु एक आश्चर्यजनक सत्य यह भी है कि तुम्हारे न रहने के बाद भी अनेक बार तुम्हारी उपस्थिति अपने आस- पास महसूस होती है, इस विरोधाभास से मै स्तब्ध हूँ . कभी कभी लगता है कि शारीरिक बन्धनों से मुक्त हो कर तुम और भी निकट आ गई हो.शायद इसीलिए तुमसे बहुत सी बातें कहने का मन है. वह सब जो संकोच के कारण कभी नहीं कहा , आज अभिव्यक्ति के लिए उद्यत है .जन्म से लेकर समझ आने तक की बातो का तो मुझे ज्ञान नहीं किन्तु उसके बाद जो हर कदम पर तुमने मुझे दिया ,उसकी अनेकानेक स्मृतियाँ हैं जो सदैव मेरे साथ रहती हैं. वे छोटी छोटी किन्तु अनमोल शिक्षायें जिन्होंने जीवन को दिशा दी, चरित्र की नीँव बनकर व्यक्तित्व को ठोस आधार दिया , उन बेशकीमती जीवन मूल्यों के लिये तुम्हें धन्यवाद देना चाहती हूँ जिन्हें तुम मेरी झोली में भरती रहीं. कितना उपयुक्त है यह कथन कि माँ ही बच्चे की पहली शिक्षक होती है . बहुत छोटी थी जब एक दिन चूड़ियाँ पहनने की जिद्द करने पर तुमने कहा था '' ये सब श्रृंगार की चीजें विद्यार्थियों के लिये नहीं हैं , , असली सुन्दरता तो विद्या और सदगुणों से मिलती है और विद्या की देवी उन्हीं बच्चों को अपना आशीर्वाद देती हैं जो सदैव साफसुथरे रहते हैं और खूब मन लगाकर पढाई करते हैं ''बहुत बाद में बड़ी कक्षाओं में जाने पर जब '' विद्या धनं सर्व धनं प्रधानम ''पढ़नेको मिला तो याद आया कि यह बात तो माँ ने पहले ही बता दी थी . माँ, सरल शब्दों में कही तुम्हारी वह बात मन में इतनी गहरी पैठ गयी कि आज भी यदि किसी आभूषण या पुस्तक में से एक को चुनना हो तो हाथ पहले पुस्तक पर ही जायेगा .ज्ञानार्जन के प्रति रुचि के जो बीज तुमने बाल्यावस्था में ही मन में बो दिए थे, वे निरंतर विकसित होते रहे है और आज भी उनकी छाया में सुख , संतोष की अनुभूति होती है .पढने लिखने में सदैव सार्थकता लगीऔर आज भी पुस्तकों के बीच में ही सच्ची शांति मिलती है . तुम्हारी दूसरीबात , जो पत्थर की लकीर की तरह मन पर अंकित है , यह थी कि कभी किसी को छोटा या हेय मत समझो , किसी की निर्बलता , निर्धनता या अपंगता पर हँसना बहुत बुरी बात है . जितना हो सके दूसरों की मदद करो, किन्तु बिना अहसान दिखाये .अपने से उम्र में बड़े हर व्यक्ति का सम्मान करो, चाहे वह तुम्हारे घर का नौकर हो ,कोई गरीब मजदूर या द्वार पर आया भिखारी , क्योंकि हर इंसान स्नेह और सम्मान चाहता है . तुमने यह भी सिखाया कि दूसरों के साथ बाँटने से सुख दुगुना हो जाता है और किसी का दुःख बंटाने से जो शांति मिलती है उसके जैसा और कोई सुख नहीं...... माँ., तुम्हारी भावानुभूति अप्रतिम थी , दूसरे के मन की बात जान लेना तुम्हारी अनेक क्षमताओं में से एक था . दीन दुखी , निर्बल और संकटग्रस्त लोग तुम्हारी सहानुभूति के विशेष पात्र होते थे .स्वयं सीमित साधनों के बीच रहते हुए भी तुम सदैव जरूरतमंदों की मदद करने के लिए तत्पर रहती थीं , मैंने कितनी ही बार तुम्हे अपने हिस्से का खाना किसी भूखे भिखारी को खिलाते देखा है .अपने लिए तुमने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा, जीवन भर निःस्वार्थ भाव से देना तुम्हारा स्वभाव रहा ,फिर वे लेने वाले चाहे अपने रहे हों या नितांत अपरिचित राहगीर . अपनी इस बेटी पर तुम्हे बहुत नाज़ था , शायद पहली संतान होने के कारण .यह आशा भी करती थी कि बड़ी होकर कुछ बहुत अच्छा काम करेगी . यद्यपि मै कुछ भी विशेष नहीं कर सकी किन्तु तुम हमेशा मेरा उत्साह बढाती रहती थी मेरी छोटी से छोटी उपलब्धि को भी सराहती थी , मेरे लाये अकिंचन से उपहारों को भी माथे से लगा कर उनका मूल्य कई गुना बढ़ा देती थी . आज जब मै फिर से तुम्हारे लिए कुछ करना चाहती हूँ तो तुम मेरी पहुँच से बहुत दूर जा चुकी हो . पिता जी की.बरसी पर जब तुम्हारे पास गयी थी तो तुमने कहा था '' अब तुम्हारे पास काफी फुर्सत है , कुछ लिखना शुरू कर दो , पढ़ना पढ़ाना तो बहुत हो गया , अब अपने अनुभवों को आत्मकथा के रूप में लिख डालो '' मैंने कहा '' क्या बात करती हो माँ, ऐसा किया ही क्या है जो लिखने के योग्य हो '' तुम्हारा उत्तर था '' जो भी करने को मिला , अच्छी तरह करने की कोशिश तो की न , इतने सारे छात्रों को पढ़ाया , उन्हें योग्य बनने के लिए प्रेरित किया , अब भी वही कर सकती हो , लिखते लिखते कितने ही प्रसंग और उदाहरण याद आते जायेंगे , जो आगे आने वाले बच्चों को भी लाभ पहुँचायेंगे '' तब यह नहीं जानती थी कि यही मेरे लिए तुम्हारा अन्तिम आग्रह सिद्ध होगा .तुम्हारे जाने के बाद अक्सर ही वे शब्द याद आते रहते है किन्तु कुछ लिखने से पहले द्विविधा में पड़ जाती हूँ कि क्या लिखूँ, तुम होतीं तो फिर तुम्हारे पास चली आती पूछने कि कैसे शुरू करूँ. आज समाचार पत्र में एक संस्था का प्रस्ताव पढ़ा जिस में महिलाओं को मदर्स डे के अवसर पर '' माँ के नाम '' शीर्षक से पत्र लिखने का आमंत्रण दिया गया है, उसे पढ़ कर ऐसा लगा कि यह प्रस्ताव तो मेरे ही लिए है, मेरे अनगिनत अनलिखे पत्रों को आकार देने का सुअवसर , मन में दबे ढंके उदगार न जाने कब से बाहर निकलने के लिए बेचैन थे , तो मैंने साहस बटोर कर कलम उठा ही ली और अन्ततः उन अमूर्त भावनाओं को आकार और अभिव्यक्ति मिल गयी इस पत्र के रूप में . माँ , तुम तक यह चिट्ठी पहुँचेगी कि नहीं , यह तो मै नहीं जानती किन्तु इसे लिख कर मुझे अपूर्व शांति का अनुभव अवश्य हो रहा है ,, कौन जाने मेरी यह श्रद्धांजलि तुम तक पहुँच ही जाय और मुझे मिल जाय एक बार फिर तुम्हारा अमूल्य आशीर्वाद . यही कामना करते हुये, सदैव तुम्हारी अनन्त स्मृतियों के साथ तुम्हारी बेटी MAY 1, 2012 Posted by Dr Indu Nautiyal at 00:29 Email This BlogThis! Share to Twitter Share to Facebook Share to Pinterest No comments: Post a Comment Newer PostOlder PostHome Subscribe to: Post Comments (Atom) ABOUT ME My photo Dr Indu Nautiyal View my complete profile BLOG ARCHIVE ► 2022 (7) ► 2021 (40) ► 2020 (11) ► 2019 (41) ▼ 2018 (57) ► December (7) ► November (2) ► October (2) ► September (4) ► August (3) ► July (3) ► June (1) ▼ May (9) गिरगिट वार्ता THE OPTIMAL GLOW IT IS HER RIGHT ..... GIRL CHILD Thus Spake The Rose .... ; ... REACHING OUT.... एक चिट्ठी -- माँ के नाम THE SOLITARY TRAVELLER ► April (11) ► March (15) ► 2017 (34) ► 2016 (30) ► 2015 (18) Picture Window theme. Powered by Blogger.

 

जाड़े के दिन

 




     इन दिनों
 बहुत देर से आता है सूरज
 फिर भागता चला जाता है  क्षितिज की ओर
 लौटने की जल्दी  हो जैसे ,
और देखते ही देखते अचानक
 हो जाता है अंतरध्यान भी

इन दिनों
पहाड़ लपेट लेते हैं अपने आपको
बर्फ की सफ़ेद चादरों में
शायद यह उनका अपना  रक्षा कवच है
शीत के प्रहार से बचे रहने के लिए

इन दिनों
उड़ते चले आते हैं सुदूर हिम प्रदेशों से
 प्रवासी पक्षियों के  झुण्ड पर झुण्ड
 गर्म जलवायु की तलाश में
 जीवित रहने की आस लेकर😆

इन दिनों
शीत रक्तवाले जीव जन्तु
 गहन निद्रा  में चले जातेहैं धरती की कोख में
ताकि जीवित रख सकें  अपने आप को
 प्रतिकूल  परिस्थितियों में भी

इन दिनों
 धनी और  सम्पन्न लोग तो
 ढूँढ लेते हैं आनन्द के नए स्रोत
  मौसम के बदलते  रूप में  भी
  क्योंकि शीत के प्रकोप से बचने के
  सब  साधन सुलभ हैं उन्हें

 किन्तु अभावग्रस्त निर्धनों के लिये ,
किसी क्रूर आक्रान्ता से कम नहीं होते ये दिन
जो अनचाहे ही आ धमकते हैं
उनकी कठिन जिंदगी को
कुछ और अधिक कष्टप्रद बनाने !.

 


छाया चित्र , साभार
@ Dreamstime





जब  कभी अपनी     आर्द्रता खो कर     

 शुष्क और कठोर बन जाये 
  मेरा यह ह्रदय,                                                                                                                                              
  तब अपनी असीम करुणा की  बौछार  बन
        इसे सिंचित करने 
        जीवन में आ जाना मेरे प्रभु!

              जब खो जाये जीवन से लालित्य  और सरसता
                किसी मधुर  गीत के बोल बनकर
                  बरस पड़ना मेरे मन की धरती पर

               जीवन संघर्ष का तुमुल कोलाहल
                  जब चारों  ओर से घेर
                 एकांत में  बंदी बना ले मुझे
                  तब ,हे मेरे मौन के स्वामी!
                     तुम आ जाना मेरे पास
          अपनी परम  शांति और विश्राम लेकर

                   जब मेरा भिक्षुक सा दीन ह्रदय
              किसी अँधेरे कोने में दुबका बैठा हो
              तुम अपने राजसी दल बल  के साथ
                      चले आना मेरे पास
                     सारे द्वार तोड़कर

                        जबअन्तहीन कामनायें
                     मस्तिष्क  को भ्रम और धूल
                      से आच्छादित कर
                      अन्धा बना दें
        तब , चिर_- जागृतऔर पावन, हे मेरे प्रभु!
         मुझे मार्ग दिखाने प्रकट हो जाना तुम
           अपने दिव्य प्रकाश 
         और घोर गर्जन के साथ

  (  गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता  का हिंदी रूपांतर, उनकी   जन्म तिथि पर श्रद्धांजलि हेतु )


 



 हिमालय की गोद में बसे,
अपने सुन्दर घर- संसार को छोड़ती ,
निकल पड़ी वह नन्ही बालिका,
एक अनजानी, सुदीर्घ यात्रा पर.

घर की सुख-सुविधा, सुरक्षा से दूर, 
एक अनजाने पथ पर, बढती चली गयी,
विघ्न-बाधाओं का सामना करती हुई,
जानती न थी ,उनका कहीं भी अंत नहीं.

 अनायास ले लिया  यह कठिन प्रण उसने, 
 कि  रुकेगी नहीं, कभी भी,कहीं भी,
 समय की गति के साथ  बढ़ती ही रहेगी,
 अपने अभीप्सित लक्ष्य को पाने तक.

कठोर चट्टानी दुरूह  वन -प्रांतर में,
 निर्भीक,अविचल   बढती रही वह,
 कभी  सघन जंगलों से गुजरी  तो,
  कूद पड़ी निडर कभी गहरी खाइयों में .,

    संकरी घाटी में स्वयं को सिकोड़ कर 
   आगे निकलने का  बनाया  रास्ता   ,
   कभी मानव -निर्मित बांधों में बंध कर,
   कुछ  पल अपने को दुर्बल भी पाया.

    किन्तु शीघ्र मुक्त हो शान्त स्वरुप  धर,
       बढ़ चली आगे सब कुछ संवारती,
     अमृत- जल  से तटों को   सींचती,
  सुख -समृद्धि बाँटती निष्पक्ष,जीव- जगत में.

    
       धैर्य और साहस से जीत सारी   बाधाएँ 
       सहस्त्राधिक कोसों की दूरी  यों नाप कर,
       जा मिली अंततः  अतल  सागर  से,
         एकाकार उसमें हो अनंत से जुड़ने!
       
      
   

     
    PHOTO CREDIT 
      Ritu Mathews  
  
  







 ईश्वर ने नहीं किया है यह वादा


  


   ईश्वर ने नहीं किया है ये वादा

   कि आकाश रहेगा सदैव नीला,

   कि जीवन के हर पथ पर  मिलेंगे,

    तुम्हें   सर्वत्र फूल ही फूल बिछे हुए .


   यह  नहीं कहा कि,

   सूरज कभी ओझल न होगा,

  तुम्हारी दृष्टि से,

  और न कभीअतिवृष्टि  का प्रकोप,

   झेलना पड़ेगा तुम्हे.


    यह भी  नहीं कि दुःख  से अनछुए  रहकर

     केवल आनंद   में रहोगे सदैव  लिप्त

      और  पीड़ा का  अनुभव किये बिना ही

      महसूस कर लोगे उस  से मुक्त  होने पर

      मिलने वाला सुख.



       किन्तु दिया  है यह आश्वासन ,

       कि मिलती रहेगी तुम्हे दिन भर,

        काम करते रहने की ऊर्जा

       और थक जाने पर पाओगे

       विश्राम के लिए लम्बी रात.


     कि जीवन- पथ  पर अन्धकार तो मिलेगा

          यदा,कदा अवश्य ही 

           किन्तु प्रकाश भी रहेगा

            हमेशा , आस-पास .

           दिखाने के लिये रास्ता 


(डा. अबुल कलाम  की एक अंग्रेजी कविता का रूपान्तर )



 


सोमवार, 2 जनवरी 2023

अवध की दीपावली





         बहुत दिनों  के बाद अवध के राम  लौट कर आये,

         बहुत दिनों के बाद अवध ने गीत शगुन के गाये.


         बहुत दिनों के बाद शंख -ध्वनि  गूँजी घर आँगन में,

          बहुत दिनों के बाद पुनः लौटा वसंत उपवन में.


        बहुत दिनों के बाद दुखों के बादल छँटने पाये,

         बहुत दिनों के बाद सुखों ने पग इस और बढ़ाये.


        बहुत दिनों के बाद कटे सब पाप- नाश के प्रेरे,

        बहुत दिनों के बाद मिटे आशंकाओं के घेरे.


       बहुत दिनों के बाद  अमावस लगी  पूर्णिमा जैसी,

        बहुत दिनों के बाद चांदनी ज्यों  कण-कण में सरसी.


      बहुत दिनों के बाद सत्य की विजय ध्वजा लहराई, 

      बहुत दिनों के बाद असुर-सत्ता की हुई विदाई.


     बहुत दिनों के बाद मिटे घर - बाहर के अँधियारे,

     बहुत दिनों के बाद अवध के दूर हुए दुःख सारे.


     बहुत दिनों के बाद राम से राजा  हमने पाए,

    इसीलिये तो घी के दीपक घर- घर  गए जलाये !

   

   

          


   

     


      

    




दृष्ट से अदृष्ट तक ...



    

  ईश्वर को देखा है तुमने कभी 

सुनी है उसकी कोई  आवाज़ ?

 जानती हूँ,  ''नहीं'' होगा तुम्हारा उत्तर,

 और स्वयं मैं भी नहीं करती ये दावा.


किन्तु यह तो है शाश्वत सत्य,

कि स्वयं  सदा अदृष्ट रहकर भी, 

पालन  और नियंत्रण करता  वह,

 समस्त  जड़- चेतन का. 




   उसकी अनन्य रचना,  धैर्यवान  धरती

   अगणित जीवों को अपने अंचल में समेटे,

     चमत्कृत  करती  मेरे मन को,

   अपनी क्षमता ,सहनशीलता से .


     सुदूर क्षितिज तक लहराता  सागर,

     विस्मित  मुझे करता सदा- सर्वदा 

     कि क्यों नहीं तोड़ता वह तटों के बंधन को,

     समाहित  कर लेने धरती को स्वयं में.


         राज्य विस्तार की  महत्वाकांक्षा

      उद्वेलित नहीं करती कभी उसके मन को ?

     लौट जाता क्यों बस छू कर किनारों को,

      नहीं करता क्यों  तटों  का उल्लंघन?


     प्राणदायी वायु को देखा  किसी ने कभी?

     जी नहीं सकते पल भर भी बिना जिसके,

     कौन करता सुनिश्चित उसके सतत प्रवाह को,

   कि जीवन- चक्र धरती पर घूमता रहे  अनवरत?

 

  

      

      दीखती है  प्रतिदिन अनंत आकाश पर,

        तेजोमय सूर्य व  रजत चन्द्र की आभा,

       और कभी मेघों  के गर्जन  की ताल पर,

        होता  नृत्य-गायन वर्षा सुंदरी का.


   साक्ष्य नहीं क्या ये उस परम अस्तित्व के,    

   निराकार होकर भी जो है सर्वाधिक सक्षम?

  क्या हुआ यदि  दिखता नहीं  वह किसी को,

   विद्यमान है निश्चित वह  जग के कण-कण में.

   

    

    

   

   

   

   

    


    

      


     

      

   

   

   

    


    

      


     

      


 जानता हूँ  छोटी सी है

 मेरी यह जीवन रेखा 

इसलिए नहीं पालता बड़े सपने

लम्बी और निरापद ज़िन्दगी के 


  सशंकित रहता हूँ  हर पल ,हर घड़ी 

न जाने कौन सा पल मेरे लिये अंतिम हो

समय तो  चलता रहता अपनी सहज गति से

 मुझ जैसे अकिंचन के न रहने से उसे क्या ?


 कभी तो सुबह खिलने के साथ ही  

मंदिर को जाते किसी श्रद्धालु की

शुभ- दृष्टि  पड़ जाती जब  मुझ पर

तोड़ लिया जाता तुरुन्त देवता की खातिर

  


    कभी   स्कूल जाता मासूम सा बच्चा 

देना चाहता मुझे अपनी '' फेवरिट टीचर'' को

 या कोई  शरारती  फेंक देता  यूँ ही  तोड़कर

 क्रूरता ही जैसे  मनोरंजन  हो उसका 


 कभी  अचानक तेज़ झोंका हवा का 

छिन्न-भिन्न कर देता मेरे अंग-प्रत्यंग को

 धूल और मिटटी में मुझे मिलाकर

 स्वयं को  विजयी समझ गर्व से चला जाता.


  

 मन में किसी के लिए  चाहत छुपाये

कोई संकोची  युवा  चाहता मेरी सहायता 

स्वयं कुछ न कहकर भी , केवल संकेतों में

किसी तक पहुँचाने अपनी कोमल भावनाएं


दिन भर यदि इन सबसे बच भी पाया  तो 

  चैन  से गुजर पायेगी रात क्या?

 अँधेरा होते ही झेलना न पड़ेगा 

 बर्फ जैसे  तुषार कणों का  दंश भी?


यूँ  आशंकाओं  से घिरे होने पर  भी

करता रहता  प्रयास प्रसन्न  रहने  का

 फूल हूँ न, यही तो धर्म है मेरा

 रंग और सुगन्ध, बाँटता  रहूँ सबको , सदा !

तीर पर कैसे रुकूँ मैं

 क्षितिज तक लहरा रहा चिर -सजग सागर    संजोये अपनी अतल गहराइयों में    सीप, मुक्ता,हीरकों  के कोष अगणित  दौड़ती आतीं निरंतर बलवती उद्दाम लहरें...