मंगलवार, 13 जून 2023

निर्झरिणी


     हे पर्वत- नन्दिनी !

    पिता की सुरक्षित गोद से निकल

    दौड़  पड़ी  हो  किस मंज़िल के

    अपरिचित, अज्ञात  रास्तों पर?

      बताओ तो, कहाँ है तुम्हारा  गन्तव्य

     जहाँ पहुँचने की उत्कट चाह ने 

      विवश कर दिया घर छोड़ने को?


     तुम्हारा यह  आनंदी   प्रवाह

    खींचता  है  मुझे  भी अपनी ओर 

    इस दुग्ध -धवल जल में मिल जाने को

    उमग उठता है अनायास ही मेरा ह्रदय. 


    देखा है मैंने तुम्हें अनेक बार

    राह में मिलती  छोटी सी जलधार को भी

    बड़ी बहन की तरह गले लगाकर

    स्वयं में एकाकार  कर आगे बढ़ते.


    सुनो!

   क्या मुझे  भी ले चलोगी साथ अपने 

  इस अनूठी  यात्रा में भागी  बनाकर,

  कुछ दूर  तक  ही सही,

  मै भी  बहना चाहती  हूँ तुम्हारी तरह.

   


   जानती हूँ, अनंत और अनवरत  है

   तुम्हारी यह  विलक्षण यात्रा

   सागर से मिल जाने के बाद भी 

    कब ठहरी हो वहाँ तुम ?


     ग्रीष्म के ताप से झुलसते प्राणियों की

    पुकार सुनते ही घने बादलों का रूप धर

    बरस पड़ती हो धरती पर

     उनका जीवन बचाने.

      

   


  तुम्हारी  निरंतरता का यह  शाश्वत चक्र ही तो,

  सुनिश्चित करता है कि अक्षुण्ण रहेगा 

 धरती पर जीवन का अस्तित्व,

 अनंतकाल तक ....   


   


    

   




  

   





    

    

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