जेठ का तीसरा सप्ताह
गर्मी की चरम सीमा
सूरज जैस आग का गोला
धरती, कुम्हार का आंवा
पेड़ - पौधे ,पशु - पक्षी
झुलस रहे चिलचिलाती धूप में
हवा भी नहीं देती राहत
बन गयी स्वयं ही तपती लू
सूख रहे कुएँ, पोखर,ताल- तलैया
पड़ रहीं खेतों पर गहरी दरारें
किसान भयाक्रांत , आशंकित
अकाल की कल्पना भर से .
मिल पायेगी कभी क्या राहत
मौसम के इन अत्याचारों से?
हर दिन लगता कठोर यातना सा
हर रात बीतती एक- एक पल गिन कर
घोर निराशा के बीच भी बार-बार
आश्वस्त करता मेरा अंतर्मन मुझको
कि बस अब और प्रतीक्षा नहीं बाकी
मौसम बदलने का समय है सन्निकट ही.
कि शीघ्र ही किसी ढलती दुपहरी में
दूर क्षितिज पर अचानक प्रकट होकर
घने , काले बादल छा जायेंगे गगन पर
विद्युत् के नृत्य संग मेघ मल्हार गाते .
बरसने लगेंगी धीरे- धीरे धरा पर
शीतल जल की अमृत -तुल्य बूँदें
मृत -प्राय धरती की प्यास बुझा कर
फिर से उसे नया जीवन दिलाती.
ऋतु -चक्र प्रकृति का सदा- सदा से
घूमता आया है यूँ ही निरन्तर
लाता रहता है सुनिश्चित क्रम में
अलग अलग मौसम, बारी - बारी से.