मंगलवार, 28 मार्च 2023

अविस्मरणीय



 

 उस एक शाम

दोपहर बाद की झपकी

अचानक ही टूटी थी

पड़ोस की छत से आती

घंटियों की आवाज़ से



और देखते देखते

गूँज उठा था सारा वातावरण

तालियों, घंटियों और शंख ध्वनियों के

मधुर  स्वरों से


  सम्मोहित सी मैं भी

घर की छत  पर जा पहुंची

और  अनायास ही शामिल हो गयी

उस अद्भुत, अपूर्व, संगीतोत्सव में


जहाँ चतुर्दिश गूँजती

विविध  स्वरलहरियाँ मानो

बिना शब्दों के भी बहुत कुछ कहने

फूट  पड़ी  थी एकाकर होकर


जन -जन की सेवा में जुटे

उन असंख्य कर्मवीरों के प्रति

स्नेह, सम्मान, और  कृतज्ञता  का यह ज्ञापन

निश्चित ही भावभीना था

और  चिर- स्मरणीय  भी!



शनिवार, 25 मार्च 2023

पतझड़ के बाद


 उस सूनी  सड़क  से गुजरते  हुए

  अचानक ही मेरी दृष्टि  पड़ी थी उस पर

 पत्र -पुष्प विहीन निराभरण रूप  उसका

  देखकर  मन हो गया था विचलित


  विगत वैभव  की स्मृतियों में खोया

  वर्तमान दशा पर आँसू  बहाता सा

  मौन  रहकर  भी बहुत कुछ बोलता

  अनाकर्षक, फिर भी अपनी ओर खींचता सा


   ठिठक  गये कदम यह देख अनायास ही

   आखिर वह था मेरा  परिचित वर्षो  का 

    मनोव्यथा उसकी जान लेने का प्रयास किया 

      बँटा सकूँ दर्द यदि हो कुछ अपने वश में


  पास जाकर पूछा, क्यों उदास हो बंधु आज

   कौन सी चिंता  सता  रही है मन को

     तुम तो रहते  थे संतुष्ट और प्रसन्न सदा  ही 

      कारण  क्या है  इस चिंता, उदासी  का 


       भरकर आह लम्बी बोलने लगा  धीरे धीरे वह

        " दुखी  हूँ आज देख  कर दशा अपनी

           कभी था हरा - भरा संसार मेरा सुंदर

           खींच  लाता था पास सब अपने परायों को


          अनगिनत पंछियों का सुखद  रैन बसेरा था

            रहते थे सपरिवार घरौंदे  बनाकर

             धूप से व्याकुल, थके -हारे पथिक  भी तो

              रुक जाते थे  यहाँ शीतल छाँव को पाकर


              और आज यहाँ किसी  भिक्षु  सा उपेक्षित

              अकेला ही झेलता   दुर्भाग्य   के दंश को

             एक दृष्टि भी  कोई डालता नहीं मुझ पर

              फिर बोलो  प्रसन्न रह  सकता मैं क्योंकर?


                 स्नेह से छूकर  उसे आश्वस्त किया मैंने

                 " सच मानो दुख के दिन अब बीत चले भाई

                   देखो वह आती वसंत की सवारी है

                   पतझड़ और शीत  की तो तुम समझो  विदाई


                   सजा देंगी शीघ्र नई  कोंपलें तुम्हारा तन

                 घनी  शीतल छाँव  देख  रुकेंगे पथिक  भी

                  और पंछी तो हैं  साथी सदा से तुम्हारे 

                  गूंजेगा उनका मधुर कलरव यहाँ फिर से


                   प्रतीक्षा की है  तुमने बहुत, थोड़ी  सी और सही

                  लौटेंगी सब खुशियाँ मौसम बदलते ही

                   नहीं विचलित होती  कभी  प्रकृति अपने क्रम से

                   पतझड़  के बाद फिर आता है वसंत ही.


   

  

शुक्रवार, 24 मार्च 2023

वसंत की पद - चाप


          पहन कर बहु रंगी  परिधान

         प्रकृति  करती किसका आह्वान?


          भ्रमर  लाये किसका सन्देश

           तितलियाँ देतीं क्या निर्देश?


           सुरभि आप्लावित वातावरण

           भेजता  किसको आमंत्रण?


          पावन की गति होती क्यों मंद

          कर रहा बोझिल क्या मकरंद?


           पत्र पुष्पों की बन्दनवार

            सजी क्यों वन -उपवन के द्वार?


             कोकिला लेकर पंचम तान

              कर रही किसका गौरव गान?


             पाँव से सिर तक खिला पलाश

              छलकता किसके प्रति उल्लास?


               किसलिए बौराया है आम,

              कर रहा झुक, झुक  किसे प्रणाम?


              छा रहा  चहुँ  दिशि नव- जीवन,

              भला किसका यह  शुभ आगमन?


               अतिथि वह  कौन  अनूप, विशिष्ट,

                  स्वयं वसुधा सुंदरि  का इष्ट,


                व्यक्त करने  आदर, अनुराग

                 बिछाया पथ पर राग -पराग?

  

               

                  लग  रहे आनंदित  सब आज 

                आ गए  सचमुच क्या ऋतुराज?

                

गुरुवार, 23 मार्च 2023

प्रार्थना


 जब कभी अपनी आर्द्रता खोकर

शुष्क  और कठोर  बन जाये मेरा यह ह्रदय

तब अपनी असीम  करुणा  की बौछार से

 इसे सिंचित  करने आ जाना

मेरे जीवन में प्रभु!


जब खो  जाये जीवन से

 लालित्य और सरसता

किसी मधुर  गीत के बोल बनकर

बरस पड़ना  मेरे मन की धरती पर


जीवन- संघर्ष  का तुमुल कोलाहल

जब सब ओर से घेर, एकांत में बंदी बना ले मुझे

तब हे मेरे मौन के स्वामी, तुम आ जाना मेरे पास

अपनी परम शांति और विश्राम लेकर


  जब मेरा भिक्षुक सा दिन ह्रदय

किसी अँधेरे कोने में दुबका बैठा हो

तुम अपने राजसी दल - बल के साथ

चले आना मेरे पास, सारे द्वार तोड़कर


जब अंतहीन  कामनायें मस्तिष्क को

भ्रम और धूल  से आच्छादित  कर अंधा  बना दें

तब, चिर जागृत  और पावन, हे मेरे प्रभु, मुझे मार्ग दिखाने

प्रकट  हो जाना तुम, अपने दिव्य प्रकाश और घोर गर्जन  के साथ.



( गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि से एक कविता  का हिंदी रूपान्तर )

श्रद्धांजलि --- डॉक्टर अब्दुल कलाम


 देकर  नई पीढ़ी  को

अग्नि पंखों  का उपहार

उड़ गया  वह देवदूत अचानक ही

अंतरिक्ष की अनंत  ऊँचाईयों की ओर


  उस अनहोनी वाले दिन

 युवा छात्रों के एक दल को

अपने ज्ञान से विस्मित करता खड़ा था

प्रकाश- स्तम्भ सा  वह उनके सम्मुख


 मन्त्र - मुग्ध से सुन रहे थे सब

 वह ओजपूर्ण व्याख्यान, जिसका शब्द -शब्द था

विज्ञान के ख़ज़ाने की जादुई कुंजी

 और वक्ता स्वयं उपलब्धियों का दस्तावेज


    तभी निरभ्र आकाश से वज्रपात जैसा

     देखा सबने  वह दुर्भाग्य घटित  होता

     उनका कटे वृक्ष की तरह भूमि पर  गिर जाना

     स्तब्ध कर गया देश भर की धड़कनों को


      सोचती हूँ क्यों हुआ होगा वह  सब

     उनका यों अचानक  चले जाना

      क्या आया था कोई सन्देश उस लोक से

       कि उनकी जरूरत  थी  वहाँ पर  तत्काल ही!


       और हमने  देखा उन्हें  असमय  ही  विदा होते

        जो थे  सरलता और  विलक्षण  प्रतिभा के धनी

         जिनकी उपलब्धियाँ  अमिट गौरव हैं देश की

            जिनका जीवन  आदर्श   युवा पीढ़ी  का


          प्रखर  वैज्ञानिक, अतुल देशप्रेमी भी

          जनता के राष्ट्रपति, छात्रों  के मित्र

           संतों  के स्नेह भाजन, सादगी की प्रतिमा

          रत्नों  में श्रेष्ठ,  सच्चे अर्थ में भारत - रत्न 


               विदा संत विज्ञानी, विदा कर्मयोगी!

              जाते हो जब उस अमरों  के लोक को

              देखेंगे हम भी  नील गगन पर  दमकता

           " अब्दुल कलाम तारा " अब से हर रात में!

           

         

  

       


बुधवार, 22 मार्च 2023

गिरगिट उवाच


 देखा जनवरी की एक सुबह मैंने 

अशोक की डाल पर चिपके

 उस विचित्र प्राणी को

निश्चिंत सा जो था  धूप में लेटा 

  

   मुझे निकट आता देख

    भागने को उद्यत हुआ

     पर मैं भी  तुरन्त बोल पड़ी

      रुको, आज कुछ  पूछना  है तुमसे


    बड़ा ही अजीब  स्वभाव  है तुम्हारा

     बार  -बार रंग बदलते रहते हो

     कभी लाल -काला तो कभी हरा -पीला

      इतना भी  फैशन  का गुलाम होना  क्या


      कि अपनी कोई निश्चित पहचान  ही न रहे

      फिर कैसे कोई विश्वास करे  तुम पर, 

     प्रकृति ने दिया है  हर एक को अलग रंग 

     तुम क्यों अलग दिखना चाहते  सभी  से?


      सिर ऊँचा उठा कर  उत्तर दिया उसने

      ठीक  कहती हो कि रंग बदलता  हूँ अक्सर 

     पर  जानती हो ऐसा  करता ही क्यों हूँ मैं

         शौक है यह मेरा कि कोई मज़बूरी?


        सच तो यह है  कि रंग बदलने में

       फैशन - वैशन  का तो दूर तक  विचार नहीं

       बस प्राण बचाने  की कोशिश  भर  करता हूँ

       तुम्ही कहो जान किसे नहीं होती प्यारी?


       छोटा सा जीव , जब भी  बाहर  निकलता 

        हमेशा  डरा, सशंकित    रहता  हूँ

       कि न  जाने कब  आहार  बन  जाऊँ

       घात लगाए बैठे किसी दुश्मन का 

         

      इसलिए तो यह युक्ति  है अपनाई

     कि जहाँ जैसा रंग हो, वैसा ही बनकर

     छुप रहता ऐसे कि किसी शिकारी को

      दिखाई  नहीं देता दूर या पास से


    बुरा न मानो तो मैं भी  कुछ पूछ  लूँ

    रंग बदलने के लिये  मुझ पर हो हँसते

    पर क्या तुम  स्वयं कभी  ऐसा नहीं करते

    तुम्हेँ भी रहता है क्या जान का खतरा?


   बात उसकी  तीर  सी चुभ गई  मुझ को

   उत्तर क्या दूँ  कुछ  समझ नहीं आया

   जानती न थी  कि प्रतिप्रश्न कर बैठेगा

   कुछ कहने  के बजाय चुप रहना ही ठीक लगा


       कहती भी कैसे  कि रंग बदलना

        प्राण  बचाने का उपक्रम नहीं हमारे लिये

        यह तो है अवसर वादिता की एक चाल

        करते उपयोग जिसका जब भी  वांछित लगे


          कि हम तो रंग बदलते हैं अपने स्वार्थो की खातिर

           उचित -अनुचित  का विचार  किये बिना

           नैतिक मूल्यों को तिलांजलि  देकर भी

           पूर्ण करना चाहते अपनी अनुचित  इच्छायें 


         सोचते -सोचते  ग्लानि छाई  मेरे मुख पर

         देखकर हाल  मेरा वह  समझ  गया सबकुछ

        बोला व्यंग्यपूर्वक जाते - जाते पलट कर

         अब तो न हँसोगी  फिर कभी मुझ पर?


        वह  तो जा छुपा  पत्तों के बीच फिर से

         पर छोड़  गया मुझको यह पाठ  पढ़ाकर

         कि दूसरों  पर  उँगली उठाने ने से पहले

         झाँक लेना बेहतर है अपने  ही गिरेबान में.

       

         

           

  

       


     

     

  

  

सोमवार, 20 मार्च 2023

गौरय्या



 लो फिर आ धमकी वह  नन्ही गौरय्या !!


चोंच में दबाये  एक छोटा  सा तिनका

चुपके से आ बैठी कूलर  की छत पर

 घोंसला  बनाने का करके इरादा

 निर्भीक  जैसे किसी का नहीं डर


  कैसी ना समझ , भोली गौरय्या!


समझाया  था मैंने कई  बार उसको,

कि सुरक्षित नहीं है यह जगह उसके हित,

 उड़ाने की कोशिश भी कई  बार की थी,

पर सुनती कहाँ है  वह  कभी किसी की!


  निपट हठीली, मूर्ख  है गौरय्या!


क्रूर दिख कर भी  चाहा था रोकना 

 उठा कर फेंक दिए तिनके सब एक बार,

 सोचा था अब नहीं आएगी  यहाँ  कभी,

पर वह  तो फिर फिर  लौट आती है इधर ही!


छोटी  सी, मगर धुन की पक्की गौरय्या!!



  पूछ  ही बैठी आखिर  आज मैं उस से,

"चाहती हो क्यों यहीं पर  घर बनाना,

बताया  था न तुम्हेँ ठीक  नहीं  है ये जगह,

खोज क्यों न लेती कोई  भला सा ठिकाना?"


पल भर चुप रह  फिर  चहचहाई  गौरय्या!

    "मुझको तो यही छत  लगती  है  सुरक्षित,

    क्योंकि  तुम पर  मुझे भरोसा है पक्का,

    कि नहीं  पहुँचाओगी कभी  हानि मेरे घर को,

     नहीं करने  दोगी किसी और को भी ऐसा ".


      सुनकर  बात उसकी दिल मेरा भर आया,

      थोड़ी  सिरफिरी, पर  है न प्यारी गौरय्या?


  

छाया चित्र, साभार

बिश्नोई अभिषेक 



गुरुवार, 16 मार्च 2023

हे ज्योतिपुंज!


           अपरिमित  है तुम्हारा साम्राज्य,

            और अप्रतिम प्रभामण्डल, 

             ऊर्जा और ऊष्मा के अनंत  स्रोत, 

               हे आलोकपुंज सूर्यदेव!


         सप्ताधिक  रंगों की आभा  को,

            स्वयं  में समाविष्ट  करता,

          अगणित  इंद्रधनुओं का उत्स है, 

          तुम्हारा अनन्य प्रकाश!


          वह, जो उदभासित  करता  है,

          समस्त जड़ -चेतन को, और

        करता है  सुनिश्चित प्राणिमात्र का अस्तित्व,

         अखिल विश्व के कण -कण  में!


          एक तुम ही तो  विफल  कर सकते  

        अनचाही अतिवृष्टि के क्रूर आयोजन  को

          अपनी  किरणों की अग्निवर्षा  से

         अहंकारी  मेघों  का अस्तित्व मिटाकर


         अनायास ही नहीं प्राप्त  तुमको

           यह परम  वंदनीय  देवत्व -पद,

       स्वयं निराकार रहकर, इस विलक्षण  स्वरुप में,

           तुम्हें ढाला है उस परम रचयिता ने ही!


          और बनाया अपना सर्वोत्तम प्रतिनिधि

            सार्वभौमिक कल्याण के निमित्त.

            इसीलिए तो हो  सर्वत्र समादरित तुम 

          हे अथक  कर्मयोगी, स्वयंप्रभ, दिवाकर !



 





         


       

     


             


बुधवार, 15 मार्च 2023

आकाश गंगा

दिन भर  की अनथक यात्रा के बाद,

जब सूर्य का आलोक रथ,

 चला  जाता  है क्षितिज के उस पार 

और धरती पर उतर आती  है निशा सुंदरी,

अपनी रहस्यमयी  श्यामल  छवि  के साथ.



 एक एक कर  टिमटिमाने  लगते  हैं  यत्र -तत्र,

  उज्ज्वल हीरक कणों से असंख्य तारक गण,

   देखते ही देखते जगमगाने लगता  है आकाश,

    रत्न -जड़ित  दर्पण  के सदृश.


    और  तब गहन  अंधकार  को भेदती,

     प्रकट  होती है उस अनंत विस्तार में,

     एक छोर  से दूसरे तक प्रवहमान,

       वह स्वनामधन्या -- आकाशगंगा.


       समाविष्ट  किये अपने अपरिमित आँचल में,

        कोटि -कोटि प्रकाश पुंजों का वैभव,

     अगणित सूर्य, चंद्र, और  नक्षत्रों के संसार को,

        अपने दुर्निवार आकर्षण की परिधि में बाँध.


       बह रही निरंतर, कालदेव की सहगामिनी बन,

       नीले आकाश  के ह्रदयस्थल  को सींचती,

        दैवी सौंदर्य  की अप्रतिम ज्योतिरेखा,

        वह  स्वयंप्रभा -- आकाशगंगा!

       





मंगलवार, 14 मार्च 2023

राम, तुम्हेँ प्रणाम!


समय की शिला पर लिखा 

सत्यम, शिवम्, सुंदरम की

  कल्पना को साकार करता

   एक सुंदर नाम,

   राम!

स्वयं परमेश्वर  थे तुम, अथवा 

उनके अनेक अवतारों में से कोई? 

दैवी  शक्तियों से संपन्न महामानव, या --

आजीवन अग्नि में तपकर कुंदन  बने,

एक सामान्य मनुष्य?


 माता-पिता के सहज स्नेह -भाजन,

अनुज  बन्धुओं के आदर्श  मार्गदर्शक,

ऋषि -मुनियों के यज्ञ, तपश्चर्या को,

निर्विघ्न संपन्न कराने का दायित्व निभाते 

 राजकुमार राम!


सघन वन के बीच , निर्जन एकांत में,

निर्दोष होकर  भी समाज से बहिष्कृत,

  संवेदनशून्य,शिलावत नारी को,

 समुचित सम्मान देकर नया जीवन  देते,

     उदार -ह्रदय , न्यायप्रिय राम!


  

पिता के आदेश को शिरोधार्य  किये 

 सत्ताऔर वैभव को तृणवत त्याग कर 

निर्विकार- मन  वन की दिशा  में, 

वीतराग सन्यासी से घर  छोड़ कर जाते  

  युवराजा राम!


 सुदूर  वन प्रान्तर में सदा  से उपेक्षित 

शोषित, पीड़ित, वनवासी समाज  को

 गले लगाकर मित्रवत अपनाते

  जन -जन के आदर्श नायक

   वनवासी  राम!


   अपरिमित वैभव और शक्ति के मद में

    आकंठ  डूबी अविवेकी सत्ता को

    अचूक  शर -संधान  से भू - लुंठित  कर

     असत्य  पर सत्य की विजय   सिद्ध करते

       परम पराक्रमी, धनुधारी राम


    समरसता व न्याय की आधारशिला  पर

   स्वर्गतुल्य अनुपम  "रामराज्य " के संस्थापक

   नीति,धर्म, संस्कृति  के सजग संपोषक

    सर्वकालिक पूजनीय, मर्यादा पुरुषोत्तम, 

            रघुवंशी  राम!!

         शत -शत  प्रणाम!!

 

तीर पर कैसे रुकूँ मैं

 क्षितिज तक लहरा रहा चिर -सजग सागर    संजोये अपनी अतल गहराइयों में    सीप, मुक्ता,हीरकों  के कोष अगणित  दौड़ती आतीं निरंतर बलवती उद्दाम लहरें...